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Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार;क्या प्रधानमंत्री मोदी राजीव गांधी की गलती दोहराएंगे?

Muslim women Alimony: मई 1986 में मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में संसद से Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 कानून पारित हुआ।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

Muslim women Alimony: मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में, मई 1986 में संसद ने Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 (MWPRD Act) कानून पारित किया। इस कानून का उद्देश्य तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा करना था। शाहबानो केस के फैसले के बाद, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को सुनिश्चित किया था, मुस्लिम समुदाय में भारी विवाद उत्पन्न हुआ।

Muslim women Alimony: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस फैसले का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि यह शरीयत कानून में हस्तक्षेप है। इस विरोध के परिणामस्वरूप, राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए नया कानून पेश किया।

MWPRD Act के तहत, तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को उनके पूर्व पति से भरण-पोषण के लिए सहायता प्राप्त करने का अधिकार मिला। हालांकि, यह कानून विवादास्पद रहा है और इसे कई बार आलोचना का सामना करना पड़ा है, खासकर महिलाओं के अधिकारों के समर्थकों द्वारा, जिन्होंने इसे महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण और अपूर्ण माना है।

यह कानून आज भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, खासकर जब मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात आती है, और इसके प्रभाव पर लगातार बहस होती रहती है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला आया है, जिसे 39 साल पहले आए शाहबानो केस से भी जोड़कर देखा जा रहा है। हालांकि, इन दोनों मामलों को एक साथ जोड़ देने से कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं जिनके उत्तर ढूंढना आवश्यक है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला संसद द्वारा 38 साल पहले बनाए गए कानून के खिलाफ है, जिसे राजीव गांधी ने लागू किया था?

Muslim women Alimony: शाहबानो केस के बाद, राजीव गांधी और उनकी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के मामले में हस्तक्षेप किया था। अब, प्रश्न यह है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भी इसी प्रकार का हस्तक्षेप करने का इरादा रखती है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि 10 जुलाई 2024 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक नई सियासी बहस को जन्म दिया है, जिसका एक सिरा सीधे राजीव गांधी से तो दूसरा सिरा मुस्लिम राजनीति से जुड़ा हुआ है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

Muslim women Alimony: सुप्रीम कोर्ट के इस हालिया फैसले का विश्लेषण करते समय, हमें यह समझने की जरूरत है कि इसमें क्या खास है जिसने इस विवाद को जन्म दिया है। फैसले में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को लेकर महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए गए हैं, जो शाहबानो केस के फैसले की याद दिलाते हैं। शाहबानो केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे, जिसके बाद संसद ने Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 कानून पारित किया था।

Muslim women Alimony: इस नए फैसले के बाद, यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल इस पर क्या रुख अपनाते हैं। मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में 1986 में जो कानून बनाया गया था, उसका उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना था। लेकिन, अब सवाल उठता है कि क्या यह कानून आज की परिस्थितियों में पर्याप्त है या इसमें बदलाव की जरूरत है?

इस बहस का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर राजनीतिक दल किस प्रकार की रणनीति अपनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार इस मुद्दे पर क्या कदम उठाती है और क्या यह मामला एक बार फिर सियासी रंग लेगा।

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला क्या है?

Muslim women Alimony: 10 जुलाई 2024 को, सुप्रीम कोर्ट के दो जजों, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने फैसला दिया कि मुस्लिम महिलाओं को भी अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। दोनों जजों ने सीआरपीसी की धारा 125 का हवाला देते हुए कहा कि यह धारा हर धर्म की शादीशुदा महिलाओं पर लागू होती है और मुस्लिम महिलाएं इससे अलग नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 12 साल पुराने केस में आया है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

Muslim women Alimony: यह मामला 15 नवंबर 2012 को तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद की पत्नी के घर छोड़ने से शुरू हुआ था। घर छोड़ने के करीब पांच साल बाद, महिला ने अपने पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 ए (पति या रिश्तेदार द्वारा क्रूरता करना) और धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत केस दर्ज कराया। इससे नाराज होकर अब्दुल समद ने अपनी पत्नी को साल 2017 में तीन तलाक दे दिया।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने यह स्पष्ट किया है कि मुस्लिम महिलाओं को भी अन्य धर्मों की महिलाओं की तरह ही कानूनी संरक्षण प्राप्त है और वे अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता मांग सकती हैं। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

Muslim women Alimony: 28 सितंबर 2017 को दोनों का तलाक हो गया। इसके बाद, महिला ने फैमिली कोर्ट में याचिका दाखिल की और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति अब्दुल समद से गुजारा भत्ता की मांग की। 9 जून 2023 को फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया कि अब्दुल समद अपनी पूर्व पत्नी को हर महीने 20 हजार रुपये गुजारा भत्ता दें। अब्दुल समद ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की, लेकिन हाई कोर्ट ने भी फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, हालांकि गुजारा भत्ता की रकम 20 हजार से घटाकर 10 हजार कर दी।

इसके बाद, अब्दुल समद सुप्रीम कोर्ट चले गए और तर्क दिया कि किसी मुस्लिम पर सीआरपीसी की धारा 125 लागू नहीं होती है, बल्कि 1986 में बना मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून ही लागू होता है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान, दोनों पक्षों के तर्कों को सुना गया और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म की महिलाओं पर लागू होती है और मुस्लिम महिलाएं भी इसके अंतर्गत आती हैं। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और इसे महिला अधिकारों की दिशा में एक मील का पत्थर माना जा रहा है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

Muslim women Alimony: सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल समद की दलील खारिज कर दी और 10 जुलाई 2024 को फैसला सुनाते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म पर लागू होती है। इसलिए अब्दुल समद को अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ‘शाहबानो 2.0’ कहा जा रहा है, क्योंकि 1985 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने शाहबानो के मामले में भी ऐसा ही फैसला दिया था। यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

सुप्रीम कोर्ट का 1985 का फैसला क्या है?

Muslim women Alimony: इंदौर की रहने वाली शाहबानो को भी उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक दे दिया था। अपना और अपने पांच बच्चों का भरण पोषण करने के लिए शाहबानो अदालत पहुंचीं और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ते की मांग की। 1985 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और तत्कालीन चीफ जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया।

Muslim women Alimony: तब चीफ जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा, जस्टिस डीए देसाई, जस्टिस ओ चिनप्पा रेड्डी और जस्टिस ईएस वेंकटचेलैया ने 23 अप्रैल 1985 को फैसला दिया कि मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपनी पूर्व पत्नी शाहबानो को गुजारा भत्ता देना होगा। यह रकम 179 रुपये 20 पैसे तय की गई थी।

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लेकिन, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का विरोध किया और इसे शरीयत में दखल करार दिया। इसके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मुस्लिम वोट बैंक के छिटकने के डर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद में नया कानून बनाना पड़ा। इस प्रकार, मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानूनी संघर्ष और सामाजिक दबाव के बीच संतुलन बनाना पड़ा।

राजीव गांधी के बनाए कानून में क्या है?

Muslim women Alimony: मुस्लिम धर्म गुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में, मई 1986 में संसद से एक कानून पारित हुआ जिसे मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून, 1986 (MWPRD Act) नाम दिया गया। इस कानून के अनुसार, तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पति से केवल इद्दत के समय तक ही गुजारा भत्ता मिलेगा। इसके अलावा, कानून में यह भी प्रावधान है कि तलाक से पहले जन्मे बच्चे या तलाक के बाद जन्मे बच्चे का पालन-पोषण महिला अकेले नहीं कर सकती है तो पूर्व पति को महिला को दो साल तक गुजारा भत्ता देना होगा।

हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों में भरण-पोषण या गुजारा भत्ता की अवधि को इद्दत से बढ़ाकर तब तक के लिए कर दिया गया जब तक कि महिला की दूसरी शादी नहीं हो जाती है। यह कानून पारित होने के बाद से ही विवादों में रहा है और इसे महिलाओं के अधिकारों के समर्थकों द्वारा आलोचना का सामना करना पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने इस कानून की व्याख्या को विस्तृत किया है, जिससे तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई है।

राजीव गांधी के बनाए कानून में इद्दत का मतलब क्या है?

Muslim women Alimony: इद्दत इस्लामिक कानून का एक महत्वपूर्ण शब्द है, जो महिला के पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी या फिर तलाक के बाद दूसरी शादी के बीच के समय को दर्शाता है। पति की मृत्यु के बाद इद्दत की अवधि 4 महीने और 10 दिन होती है, यानी कुल 130 दिन। इस अवधि में महिला दूसरी शादी नहीं कर सकती है। तलाक के मामले में इद्दत की अवधि 90 दिनों की होती है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

हालांकि, यदि महिला गर्भवती है, तो चाहे मामला तलाक का हो या पति की मृत्यु का, इद्दत की अवधि बच्चे के जन्म तक जारी रहती है। बच्चे के जन्म के साथ ही इद्दत समाप्त हो जाती है। इद्दत की यह अवधि महिला के पुनर्विवाह से पहले की शुद्धि और सामाजिक, धार्मिक नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित की गई है। यह अवधि महिला को मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्थिर होने का समय भी देती है।

Muslim women Alimony: इस्लामिक परंपराओं में इद्दत का महत्वपूर्ण स्थान है, और यह सुनिश्चित करता है कि महिला के जीवन में किसी भी बड़े बदलाव के बाद एक निर्धारित समय के लिए उसे समर्थन और सुरक्षा प्राप्त हो।

क्या सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के बनाए कानून को पलट दिया है?

Muslim women Alimony: 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है, उससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी के बनाए कानून को पलट दिया है। इसका जवाब है नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में सिर्फ यह तय किया है कि मुस्लिम महिलाओं को उनके पूर्व पति से गुजारा भत्ता मिलना चाहिए, जैसा कि सीआरपीसी की धारा 125 में शादीशुदा महिलाओं के लिए होता है।

Muslim women Alimony: सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसलों की स्वीकृति देते हुए बताया कि पहले भी साल 2001 में और 2009 में उन्होंने इसी तरह के मामलों में यह निर्णय दिया था। 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ के मामले में और 2009 में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि महिलाओं को उनकी दूसरी शादी न होने तक भरण-पोषण या गुजारा भत्ता मिलेगा। इस तरह के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने मुस्लिम महिलाओं के हक को सुरक्षित किया है और कानूनी रूप से उनका समर्थन किया है।

Muslim women Alimony: सुप्रीम कोर्ट ने अपने अलग-अलग फैसलों में हमेशा यह स्पष्ट किया है कि 1986 का कानून सीआरपीसी की धारा 125 पर किसी भी तरह की रोक नहीं लगाता है, इसलिए मुस्लिम महिलाओं को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मिलता रहेगा। 10 जुलाई 2024 के फैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही दिशा निर्देश दिया है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि 1986 में बनाए गए संसदीय कानून ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए अधिकार दिया है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

इसमें कोई भी अंतर नहीं है कि किस कानून के तहत महिला अपने भरण-पोषण की मांग कर सकती है, बल्कि यह उसकी व्यक्तिगत परिस्थितियों और आवश्यकताओं पर निर्भर करता है।

Muslim women Alimony: जस्टिस नागरत्ना ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि ये कानूनी संशोधन महिलाओं के समृद्ध अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें समानता के आधार पर विचार मिलता है। इससे सुप्रीम कोर्ट ने एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया है जिससे मुस्लिम महिलाओं को समान अधिकार मिलने की दिशा में एक और बड़ी जीत है।

क्या राजीव गांधी की तरह पीएम मोदी भी करेंगे हस्तक्षेप?

Muslim women Alimony: शाहबानो केस के मामले में जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला दिया, तो मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उसे सीधे तौर पर इस्लाम के साथ जोड़ दिया। उन्होंने इस फैसले को शरीयत के खिलाफ बताया और राजीव गांधी को फैसले को पलटने के लिए दबाव बनाने लिए। इसके परिणामस्वरूप, राजीव गांधी ने संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा दिया। इस कार्रवाई ने उनकी पार्टी में भी विवाद उत्पन्न किया और इस पर विरोध भी हुआ।

इस प्रक्रिया ने साफ कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी राजनीतिक दबावों और सामाजिक प्रतिस्पर्धाओं का सामना करना पड़ता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कानूनी प्रक्रिया और न्यायिक फैसले समाज के हित में हो, निर्णय लेने वालों को हमेशा समझदारी से आगे बढ़ना पड़ता है।

Muslim women Alimony: राजीव गांधी के काल में मुस्लिम समुदाय के लिए 1986 में कानून बनाने के बाद, अब नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक नई मोड़ पर कदम उठाया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 10 जुलाई 2024 को दिए गए फैसले में मुस्लिम महिलाओं के हक की रक्षा की गई है, जिससे उन्हें तलाक के बाद भरण-पोषण का हक प्राप्त रहेगा। इसके पहले भारतीय समाज में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चर्चा तेजी से चल रही है।

Muslim women Alimony: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण का अधिकार

Muslim women Alimony: राजीव गांधी के समय में अयोध्या में राम मंदिर के ताला खोलने से हिंदू समुदाय को आनंद मिला था, जबकि अब नरेंद्र मोदी की नेतृत्व में सरकार ने तीन तलाक पर कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात की है। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने समाज में बहुत उत्साह और विवाद दोनों पैदा किए हैं। मोदी सरकार ने इस फैसले का स्वागत किया है, जिससे समाज में एक नई चरम परिवर्तन की संभावना बनी है।

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