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News Sexual harassment case against West Bengal Governor : राज्यपाल के खिलाफ अपराधिक मामले में आर्टिकल 361 की छूट, समीक्षा और विश्लेषण !

News Sexual harassment case against West Bengal Governor: संविधान का आर्टिकल 361 क्या है, जो राज्यपाल को देता है स्पेशल पावर?

पश्चिम बंगाल राजभवन की एक महिला कर्मचारी ने राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। (News Sexual harassment case against West Bengal Governor)  लेकिन संविधान के आर्टिकल 361 के तहत मिली छूट के कारण पुलिस राज्यपाल का नाम आपराधिक मामले में नहीं जोड़ सकती।

News Sexual harassment case against West Bengal Governor
News Sexual harassment case against West Bengal Governor : राज्यपाल के खिलाफ अपराधिक मामले में आर्टिकल 361 की छूट, समीक्षा और विश्लेषण !

मई 2024 में जब एक तरफ लोकसभा चुनाव चल रहे थे, वहीं पश्चिम बंगाल में कथित तौर पर एक हाई प्रोफाइल यौन उत्पीड़न का मामला सामने आया था।(News Sexual harassment case against West Bengal Governor) यह मामला पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस से जुड़ा है।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस पर राजभवन में काम करने वाली एक अस्थाई कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। हालांकि यह मामला दो महीने पुराना है लेकिन अब यह चर्चा में इसलिए है क्योंकि महिला अब अपनी शिकायत लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है।

दरअसल, आर्टिकल 361 के अनुसार देश के राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल पर उनके कार्यकाल के दौरान उन पर कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं की जा सकती है। इसलिए महिला ने सुप्रीम कोर्ट में आर्टिकल 361 के तहत राज्यपाल को मिलने वाली छूट को चुनौती दी है।

आर्टिकल 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों को उनके पद की गरिमा और उनके काम की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आपराधिक मामलों से सुरक्षा दी जाती है। लेकिन यह छूट एक बहस का विषय बन गई है जब इसे किसी गंभीर आपराधिक मामले में चुनौती दी जाती है। इस मामले में महिला ने न्याय की गुहार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या संविधान के तहत दी गई इस छूट को फिर से समीक्षा की जरूरत है?

(News Sexual harassment case against West Bengal Governor) पहले जानिए क्या है महिला का आरोप और पूरा मामला

राजभवन की अस्थाई महिला कर्मचारी ने सुप्रीम कोर्ट में जो शिकायत दी है, उसके मुताबिक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस ने 24 अप्रैल और 2 मई को राजभवन में नौकरी देने के बहाने महिला को बुलाया और यौन उत्पीड़न किया। महिला ने पुलिस के पास इसकी शिकायत की, जिसके कुछ घंटों के बाद ही राज्यपाल ने राजभवन में पुलिस की एंट्री बंद करने के आदेश दे दिए।

शिकायत आने के बाद पश्चिम बंगाल पुलिस इस मामले की जांच करना चाहती थी, लेकिन क्योंकि राज्यपाल का पद संवैधानिक होता है, इसलिये पुलिस इस मसले पर तुरंत कार्रवाई नहीं कर पाई। पुलिस राजभवन के कर्मचारियों से पूछताछ करना चाहती थी और वहां के सीसीटीवी कैमरों को भी खंगालना चाहती थी। मगर आर्टिकल 361 के कारण वो ऐसा नहीं कर पाई।

महिला का कहना है कि भारतीय संविधान का आर्टिकल 361 राज्यपाल के खिलाफ पुलिस जांच पर रोक नहीं लगाता है और न ही आपराधिक कृत्यों पर पूरी तरह से छूट देता है। लिहाजा कथित पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपालों को मिलने वाली छूट से संबंधित दिशा-निर्देश तैयार करने की भी मांग की है।

महिला कर्मचारी ने कहा कि आर्टिकल 361 के कारण उन्हें मुकदमा शुरू करने के लिए राज्यपाल के पद छोड़ने का इंतजार करना पड़ेगा, जो अनुचित है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उनका यह भी कहना है कि इस अनुच्छेद का दुरुपयोग करके राज्यपाल अपने पद का गलत फायदा उठा सकते हैं और यह न्याय की प्रक्रिया में बाधा बन सकता है।

अब आप जाहिर तौर पर यह जानना चाहते होंगे कि आर्टिकल 361 में ऐसा क्या है, जिसके तहत राज्यपाल को यह स्पेशल पावर मिलता है। आर्टिकल 361 भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो राष्ट्रपति और राज्यपालों को उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी आपराधिक कार्रवाई से सुरक्षा प्रदान करता है। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह है कि इन उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति बिना किसी डर या दबाव के अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।

इस मामले में, महिला ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि वह आर्टिकल 361 के तहत राज्यपालों को दी गई छूट की समीक्षा करे और इसे संविधान के मौलिक अधिकारों के साथ संतुलित करने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करे। महिला का तर्क है कि न्याय पाने के उनके अधिकार को आर्टिकल 361 के प्रावधानों के कारण बाधित नहीं किया जाना चाहिए।

इस प्रकार, यह मामला एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस का विषय बन गया है, जिसमें उच्च संवैधानिक पदों की गरिमा और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन की आवश्यकता है।

News Sexual harassment case against West Bengal Governor क्या है आर्टिकल 361?

भारतीय संविधान का आर्टिकल 361 भारत के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपाल को दी गई एम्युनिटीज से जुड़ा है। इस आर्टिकल के तहत राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपाल पर कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं हो सकती है और न ही उनकी गिरफ्तारी की जा सकती है। आर्टिकल 361 में कहा गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने पद की शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग और पालन या उन शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग और पालन में उनके द्वारा किए गए या किए जाने का तात्पर्यित किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे।

इस बात को आप आसान शब्दों में अगर समझना चाहते हैं तो ऐसे समझें कि पद पर कार्यरत राष्ट्रपति और राज्यपाल पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती है। वह देश की किसी भी अदालत के प्रति उत्तरदायी नहीं होते हैं।

इस आर्टिकल के दो सब-क्लॉज हैं। पहला यह कहता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान कोई क्रिमिनल प्रोसिडिंग शुरू नहीं की जा सकती है और न ही उसे जारी रखा जा सकता है। वहीं दूसरा क्लॉज कहता है कि पद पर आसीन रहते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल की गिरफ्तारी या जेल भी नहीं हो सकती। हालांकि, कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन पर कार्रवाई शुरू की जा सकती है।

इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन बिना किसी डर या दबाव के कर सकें। लेकिन इस प्रावधान का दुरुपयोग भी हो सकता है, जिससे न्याय की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। इसलिए यह प्रावधान संवैधानिक बहस का विषय भी बनता है, जिसमें उच्च संवैधानिक पदों की गरिमा और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है।

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News Sexual harassment case against West Bengal Governor : राज्यपाल के खिलाफ अपराधिक मामले में आर्टिकल 361 की छूट, समीक्षा और विश्लेषण !

News Sexual harassment case against West Bengal Governor क्या कोई रास्ता नहीं?

इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि भले ही राज्यपाल पर कोई क्रिमिनल प्रोसिडिंग नहीं हो सकती लेकिन पर्सनल एक्ट के लिए उन पर सिविल प्रोसिडिंग चलाई जा सकती है। साल 2010 के बी.पी. सिंघल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को “राज्यपाल के अनुचित आचरण” सहित वैध और बाध्यकारी कारणों से दुर्लभ और असाधारण मामलों में हटाया जा सकता है।

भले ही आर्टिकल 361 राज्यपाल को पूरी एम्युनिटी देता है, फिर भी राष्ट्रपति केंद्र की सलाह पर राज्यपाल को हटाने से नहीं रोकता है। राष्ट्रपति राज्यपाल से आरोपों पर जवाब भी मांग सकते हैं।

इसका मतलब यह है कि अगर राज्यपाल के आचरण को लेकर गंभीर आरोप लगते हैं, तो केंद्र सरकार राष्ट्रपति से सलाह करके राज्यपाल को हटाने की सिफारिश कर सकती है। इस प्रक्रिया से न केवल न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है बल्कि यह भी सिद्ध होता है कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति भी कानून से ऊपर नहीं हैं।

इस प्रकार, आर्टिकल 361 के तहत दिए गए विशेषाधिकार का दुरुपयोग करने वाले राज्यपाल के खिलाफ कार्रवाई के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रावधान मौजूद हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि संवैधानिक गरिमा और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना संभव है।

News Sexual harassment case against West Bengal Governor पहले भी हुए ऐसे मामले?

जी हां, यह पहला मामला नहीं है जब राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा है। हालिया मामला मेघालय के राज्यपाल वी. षणमुगनाथन का था। ( साल 2017 में राजभवन में महिलाओं के यौन उत्पीड़न के आरोपों के बाद भी इसी तरह के सवाल उठे थे।

मेघालय के राजभवन में यौन उत्पीड़न के आरोपों के बीच राज्यपाल वी. षणमुगनाथन ने इस्तीफा दे दिया था। मेघालय के मामले में केंद्र ने पहला साक्ष्य सामने आते ही राज्यपाल को इस्तीफा देने को कह दिया था। दरअसल, राजभवन के कर्मचारियों ने सबूत के तौर पर एक पत्र लिखा था।

यह पत्र राज्यपाल के आचरण के खिलाफ गंभीर आरोपों का विवरण था, जिसमें उन्होंने महिलाओं के साथ अनुचित व्यवहार किया था। केंद्र सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए तुरंत कार्रवाई की और राज्यपाल से इस्तीफा देने को कहा। इससे यह स्पष्ट होता है कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति भी कानून और नैतिकता के दायरे से बाहर नहीं हैं।

इस प्रकार के मामलों में, संविधान और कानून के प्रावधानों का सही उपयोग करके न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है। राज्यपाल के खिलाफ आरोपों की जांच और कार्रवाई के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रक्रिया उपलब्ध है, जो यह सुनिश्चित करती है कि उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति भी अपने कर्तव्यों का पालन न्याय और नैतिकता के साथ करें।

News Sexual harassment case against West Bengal Governor क्या सुप्रीम कोर्ट कर सकता है हस्तक्षेप?

साल 2015 में तत्कालीन राज्यपाल स्वर्गीय राम नरेश यादव के खिलाफ व्यापम भर्ती घोटाला मामले में एफआईआर दर्ज किया गया था, जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को हटाने की मांग वाली याचिका पर उन्हें नोटिस जारी किया था।

हाईकोर्ट में इस आधार पर याचिका दायर की गई थी कि आर्टिकल 361 राज्यपाल को पूर्ण एम्युनिटी नहीं देता है और इस मामले में यह अनुच्छेद एक संज्ञेय अपराध में राज्यपाल के अभियोजन में बाधा डाल रहा है।

ये मामला जब सुप्रीम कोर्ट में आया तो मध्य प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर को कोर्ट की तरफ से नोटिस भेजा गया। लेकिन राज्यपाल राम नरेश यादव ने उस नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया और न ही सुप्रीम कोर्ट ने अपना नोटिस वापस लिया। साल 2016 में राम नरेश यादव का देहांत हो गया और तब तक यह मामला पेंडिंग ही रहा।

जिस तरह पश्चिम बंगाल की महिला ने सर्वोच्च न्यायालय से गाइडलाइन्स बनाने का अनुरोध किया है, उसी तरह यादव के मामले में भी याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय से शारीरिक या मानसिक विकलांगता, भ्रष्टाचार या नैतिक पतन या राज्यपाल के अनुरूप आचरण न करने के मामलों में राज्यपाल को हटाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने का आग्रह किया था।

साल 2006 में रामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य मामले में एक ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले में कहा था कि यद्यपि राज्यपाल को जवाबदेह ठहराए जाने से व्यक्तिगत छूट प्राप्त है फिर भी उनके कार्यों को चुनौती दी जा सकती है।

इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक और कानूनी मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है और राज्यपाल के आचरण पर सवाल उठाए जाने पर उचित दिशा-निर्देश जारी कर सकता है। राज्यपाल के खिलाफ लगे गंभीर आरोपों की जांच और कार्रवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो सकता है ताकि न्याय और संविधान की मर्यादा बनी रहे।

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