Medical Research in India : GDP का मात्र 0.6% खर्च, क्लिनिकल टेस्ट पर विवाद, नई दवाओं के परीक्षण में गड़बड़ियां, जो स्वास्थ्य क्षेत्र में इनोवेशन को बाधित कर रही हैं !

Medical Research in India : भारत में नई दवाओं का टेस्ट करना आम बात है. मगर इस व्यवस्था में कई गड़बड़ियां भी सामने आती हैं, जो भारत के हेल्थकेयर सेक्टर में इनोवेशन के सपनों पर पानी फेर रही हैं

Medical Research in India : कभी सोचा है कि डॉक्टर नई बीमारियों का इलाज कैसे खोजते हैं? या बीमारियों के लिए बेहतर दवाइयां कैसे बनती हैं? इसका जवाब है मेडिकल रिसर्च। इसे हेल्थ रिसर्च भी कहा जाता है। बीमारियों से लड़ाई का ‘सही इलाज’ ही एक तरीका है।

Medical Research in India
Medical Research in India : GDP का मात्र 0.6% खर्च, क्लिनिकल टेस्ट पर विवाद, नई दवाओं के परीक्षण में गड़बड़ियां, जो स्वास्थ्य क्षेत्र में इनोवेशन को बाधित कर रही हैं !

मेडिकल रिसर्च दो तरह की होती है। एक है प्रीक्लिनिकल रिसर्च, जिसमें वैज्ञानिक टेस्ट ट्यूब या जानवरों पर दवाओं का टेस्ट करते हैं। इसमें देखा जाता है कि क्या दवा काम करती है और कोई गंभीर नुकसान तो नहीं है। यह चरण बेहद महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसमें दवा की प्रभावशीलता और सुरक्षा की प्रारंभिक जांच होती है।

दूसरा चरण है क्लिनिकल रिसर्च। अगर प्रीक्लिनिकल रिसर्च का चरण सफल हो जाता है, तो दवा सीधे मरीजों पर टेस्ट की जाती है। इस चरण में यह देखा जाता है कि दवा कितनी कारगर है और मरीजों पर उसका क्या असर होता है। क्लिनिकल रिसर्च के दौरान दवा के विभिन्न डोज़ और उनका असर विस्तृत रूप से जांचा जाता है। इसके तहत दवा के साइड इफेक्ट्स और लाभ दोनों का मूल्यांकन किया जाता है।

मेडिकल रिसर्च एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें वैज्ञानिक, डॉक्टर, और मरीज सभी शामिल होते हैं। इसके माध्यम से नई दवाइयों का विकास और मौजूदा दवाओं में सुधार किया जाता है, ताकि बीमारियों का प्रभावी और सुरक्षित इलाज संभव हो सके। इस तरह, मेडिकल रिसर्च बीमारियों से लड़ने और मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

मेडिकल रिसर्च में तेजी से तरक्की कर रहा भारत

अब भारत अलग-अलग बीमारियों के इलाज पर खास रिसर्च करने वाले अत्याधुनिक इंस्टीट्यूट बना रहा है। ये इंस्टीट्यूट इलाज के नए-नए तरीके खोज रहे हैं। अब रिसर्च करने वाले लोग भारत में रहने वाली आदिवासी जनजातियों की खास बीमारियों पर ज्यादा गौर कर रहे हैं। वे अब उन बीमारियों का इलाज खोजने की कोशिश कर रहे हैं जो सिर्फ आदिवासी इलाकों में ज्यादा होती हैं। दूसरे देशों की रिसर्च में जिन बीमारियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है, उन पर भी अब भारत में काफी तरक्की हो रही है।

उदाहरण के तौर पर, भारत बायोटेक कंपनी ने ‘रोटावैक’ नाम की वैक्सीन बनाई है। यह खासतौर से छोटे बच्चों को होने वाले दस्त की एक बड़ी वजह को दूर करती है। यह इस बात का सबूत है कि भारत अपनी ही बीमारियों का इलाज खोज सकता है। Medical Research in India के माध्यम से अब भारत वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है।

अब कंप्यूटर प्रोग्राम मरीजों की जांच में मदद कर रहे हैं और उनकी बीमारी के लिए सबसे सही इलाज बताने में डॉक्टर का साथ दे रहे हैं। साथ ही, ये टेक्नॉलॉजी कम खर्चे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को इलाज पहुंचाने में भी मदद कर रही हैं। Medical Research in India ने तकनीकी उन्नति के साथ इलाज के नए-नए तरीके खोजे हैं।

Medical Research in India अब सिर्फ शहरी इलाकों तक सीमित नहीं है। यह ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में भी फैल रही है, जिससे वहां के लोग भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा सकें। Medical Research in India का लक्ष्य है कि हर व्यक्ति को सस्ता और सुलभ इलाज मिले।

Medical Research in India ने देश के हेल्थकेयर सिस्टम में एक नई क्रांति ला दी है। नए-नए अनुसंधान और खोज के माध्यम से भारत अपनी जनता को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा है। Medical Research in India न केवल बीमारियों के इलाज में सुधार कर रही है, बल्कि यह भारतीय वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को भी वैश्विक स्तर पर पहचान दिला रही है। इस प्रकार, Medical Research in India देश के विकास और स्वास्थ्य सुधार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

Medical Research in India
Medical Research in India : GDP का मात्र 0.6% खर्च, क्लिनिकल टेस्ट पर विवाद, नई दवाओं के परीक्षण में गड़बड़ियां, जो स्वास्थ्य क्षेत्र में इनोवेशन को बाधित कर रही हैं !

भारत में मेडिकल रिसर्च बहुत तरक्की कर रहा है, फिर भी कई रिसर्च संस्थानों में पैसों की कमी और पुराने उपकरणों की वजह से अच्छा रिसर्च नहीं हो पाता है। नए-नए खोज करने के लिए जरूरी चीजों का ही अभाव है। Medical Research in India अपनी कुल कमाई (जीडीपी) का सिर्फ 0.6% ही रिसर्च पर खर्च करता है। इसमें से भी सिर्फ 20 फीसदी पैसा ही उन सरकारी विभागों को मिलता है जो मेडिकल रिसर्च करवाते हैं, जैसे कि साइंस मिनिस्ट्री, सीएसआईआर और आईसीएमआर।

चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका जैसे देशों में रिसर्च के लिए ज्यादातर पैसा (70%) प्राइवेट कंपनियां देती हैं। मगर Medical Research in India के लिए साल 2019-20 में कुल रिसर्च फंड का सिर्फ 36% ही प्राइवेट कंपनियों से आया।

भारत में कई होनहार डॉक्टर और रिसर्च करने वाले लोग अच्छे मौके की तलाश में विदेश चले जाते हैं। वहां उन्हें अच्छी लैब, ज्यादा पैसा और तरक्की के ज्यादा रास्ते मिलते हैं। जब तेज दिमाग वाले लोग देश छोड़कर चले जाते हैं, तो Medical Research in India करने की क्षमता कम हो जाती है। नई खोज करने की ताकत भी कमजोर पड़ जाती है। जैसे- डॉ. राहुल पुरवार ने आईआईटी बॉम्बे में कैंसर का इलाज करने के लिए एक नई तकनीक ढूंढी थी, लेकिन बेहतर सुविधाओं की वजह से वो अपना रिसर्च अमेरिका ले गए।

Medical Research in India को सुधारने के लिए जरूरी है कि रिसर्च के लिए अधिक फंडिंग और आधुनिक उपकरण उपलब्ध कराए जाएं। इसके साथ ही, प्राइवेट कंपनियों को रिसर्च में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे न केवल देश में रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि नए-नए खोज और इनोवेशन भी सामने आएंगे।

Medical Research in India में बेहतरीन टैलेंट को बनाए रखने के लिए रिसर्चर्स को अच्छे मौके, उचित वेतन और आधुनिक सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। इससे न केवल देश में मेडिकल रिसर्च का स्तर बढ़ेगा, बल्कि भारत वैश्विक स्तर पर भी एक प्रमुख स्थान प्राप्त कर सकेगा।

भारत में दवाओं का टेस्ट: क्या सब कुछ ठीक है?

भारत में नई दवाओं का टेस्ट (क्लिनिकल ट्रायल) करना आम बात हो गई है। मगर इस व्यवस्था में कई गड़बड़ियां भी सामने आती हैं, जो भारत के हेल्थकेयर सेक्टर में इनोवेशन के सपनों पर पानी फेर रही हैं। Medical Research in India में हाल ही में भोपाल में कोवैक्सीन के ट्रायल में कुछ गड़बड़ियों का दावा किया गया है।

10 जनवरी 2021 को कुछ लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उस समय के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को एक लेटर लिखा था। ये सब भोपाल गैस कांड से पीड़ित लोगों और उनके बच्चों की मदद करने वाले संगठनों से जुड़े हुए हैं।

लेटर में उन्होंने कहा कि भोपाल के पीपल्स हॉस्पिटल में भारत बायोटेक की कोवैक्सीन का जो टेस्ट किया गया, उसमें कुछ गड़बड़ियां हुई हैं। उनका दावा है कि इस टेस्ट में कुछ नियमों का पालन नहीं किया गया और गरीब लोगों का फायदा उठाया गया। उन लोगों की मांग की है कि इस रिसर्च साइट पर तुरंत जांच रोकी जाए और किसी बाहरी, आजाद संस्था से मामले की जांच करवाई जाए। गलती करने वालों को सजा दी जाए। साथ ही जिन लोगों के साथ गलत हुआ है, उन्हें मुआवजा दिया जाए।

Medical Research in India में लेटर में ये भी आरोप लगाए गए कि रिसर्च के नियमों का पालन नहीं हुआ। जैसे- मरीजों को पूरी जानकारी दिए बिना उनकी सहमति लेना, गरीब या लाचार लोगों को रिसर्च में शामिल करना, रिसर्च में हुई परेशानियों की रिपोर्ट न करना और मरीजों की देखरेख में कमी।

Medical Research in India में इस तरह की गड़बड़ियों से न केवल मरीजों का विश्वास टूटता है, बल्कि हेल्थकेयर सेक्टर में इनोवेशन की राह में भी बाधाएं आती हैं। Medical Research in India को सुधारने के लिए जरूरी है कि रिसर्च के नियमों का सख्ती से पालन किया जाए और मरीजों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। इससे न केवल देश में रिसर्च की गुणवत्ता बढ़ेगी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की साख बनेगी।

Medical Research in India में पारदर्शिता और जिम्मेदारी का पालन जरूरी है ताकि हेल्थकेयर सेक्टर में विकास और नवाचार हो सके। इससे न केवल मरीजों का विश्वास बढ़ेगा, बल्कि वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को भी एक सकारात्मक माहौल मिलेगा।

क्या है पूरा मामला?

असल में परेशानी की बात ये है कि भारत की दवा नियमन संस्था सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) ने कोवैक्सिन के लिए क्लिनिकल ट्रायल के तीसरे फेज में लोगों को शामिल करने का काम पूरा होने से पहले ही इस वैक्सीन को ‘क्लिनिकल ट्रायल मोड के तहत कोवैक्सिन के सीमित इस्तेमाल’ के लिए मंजूरी दे दी थी।

जबकि ऐसा दवाओं और कॉस्मेटिक्स पर बने नियमों में कहीं नहीं लिखा है, न ही 2019 के ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में और न ही उसके साथ जुड़े ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स में। Medical Research in India के संदर्भ में यह एक गंभीर चिंता का विषय है। Medical Research in India में इस प्रकार की अनियमितताएं न केवल शोध की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं, बल्कि मरीजों की सुरक्षा पर भी सवाल खड़ा करती हैं। अतः, Medical Research in India में पारदर्शिता और सख्त नियमों का पालन आवश्यक है।

क्लिनिकल टेस्ट पर अक्सर क्यों होता है विवाद

भारत में सबसे बड़ी समस्या यह है कि क्लिनिकल ट्रायल (दवाओं के टेस्ट) में मरीजों को शामिल करते समय उनकी सहमति सही तरीके से नहीं ली जाती है। यह बार-बार होता रहा है। कई बार गरीब और अनपढ़ लोगों को ऐसे ट्रायल में शामिल कर लिया जाता है, बिना उन्हें यह पूरी तरह बताए कि दवा से उन्हें क्या नुकसान हो सकता है।

यह सुनिश्चित करना कि ऐसी गलतियां न हों, एथिक्स कमेटी का काम होता है। लेकिन ये समितियां सिर्फ कागजों पर और नियमों में ही दिखती हैं, असल में ये कितना अच्छा काम करती हैं, यह कहना मुश्किल है।

साल 2022 में गायत्री साबरवाल और उनके साथियों ने एक रिपोर्ट जारी की थी। उन्होंने भारत में हो रहे 1359 मेडिकल टेस्ट की जांच की। इसमें उन्हें 30 तरह की गड़बड़ियां मिलीं जो एथिक्स कमेटी में हो रही थीं। कुछ टेस्ट तो बिना किसी एथिक्स कमेटी के ही हो रहे थे। कहीं-कहीं तो एक जगह के टेस्ट को तीन-तीन कमेटियां मंजूरी दे रही थीं।

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